-पुस्तक चेतावनी और सामयिक चेतावनी
-लेखक श्री जयदयाल गोयंदका जी
-प्रकाशक श्री गीता प्रेस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 62
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है - ' तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर |' हम जिधर दृष्टि दौडाते हैं , उधर हमें दुःख - ही - दुःख नजर आता है | बचपन से लेकर मृत्युपर्यन्त दुःख का ही एकछत्र साम्राज्य है | गीता में जन्म , मृत्यु , जरा और रोग [ व्याधि ] आदि में दुःख और दोषों का बार - बार विचार करने हेतु कहा गया है | माता के गर्भ में आते ही इस जीव को दुःख चारों ओर से आ घेरते हैं | माता के उदर में जब तक यह जीव रहता है , तब तक घोर कष्ट का अनुभव करता है | वह चारों ओर मांस - मज्जा , रुधिर -कफ और मल- मूत्र आदि दूषित और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों से घिरा रहता है | ऊपर टांगें और नीचे शिर किये सिकुड़ा हुआ पड़ा रहता है | माता यदि भूल से कोई क्षारयुक्त अथवा दाहक पदार्थ खा लेती है तो उससे गर्भस्त शिशु की त्वचा जलने लगती है | वह चुप - चाप इन सारे कष्टों को सहता रहता है | गर्भ से बाहर निकलते समय भी उसे घोर यंत्रणा होती है , वह चेतनाशून्य हो जाता है | इसी प्रकार मृत्यु के समय भी बड़े कष्ट से प्राण त्यागता है |