-पुस्तक सुख पूर्वक जीने की कला
-लेखक स्वामी श्री रामसुखदास जी
-प्रकाशक श्री गीता प्रेस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 48
-मूल्य 7/-
वर्तमान में लोग भिन्न-भिन्न कारणों से बहुत दुखी हैं। इसलिये जब उन्हें
सूचना मिलती है कि शहर में कोई ऐसा साधु, ज्योतिषी अथवा तांत्रिक आया है,
जो दूसरों का दुःख दूर कर सकता है तो वे वहीँ चल पड़ते हैं। परन्तु आजकल
सच्चे साधु-संत, ज्योतिषी या तांत्रिक प्राय: मिलते नहीं। जो मिलते हैं, वे
केवल पैसा कमानेवाले, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले ही होते हैं। किसी-किसी
की प्रारब्धवश झूठी प्रसिधी भी हो जाती है। किसी बनावटी साधु के पास सौ
आदमी अपनी-अपनी कामना लेकर जायं तो उनमें से पच्चीस- तीस आदमियों की कामना
तो उनके प्रारब्धके कारण यों ही पूर्ण हो जायेगी। परन्तु वे प्रचार कर
देंते कि आमुक साधु की कृपा से, आशीर्वाद से ही हमारी कामना पूर्ण हुई। इस
प्रकार बनावटी साधु का भी प्रचार हो जाता है।
परन्तु एक शहर में कोई सच्चे संत आये। वे किसी से कुछ नहीं मांगे। भिक्षा से जीवन-निर्वाह करते हैं। किसी से भी किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं जोड़ते। किसी को चेला-चेली भी नहीं बनाते। जो उनके पास आता है, उसी का दुःख दूर करने की चेष्टा करते हैं। शहर में उनकी चर्चा फ़ैली तो लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। अनेक लोग उन संत के पास इकट्ठे हो गए। कुछ लोग अपना-अपना दुःख सुनाने लगे। संत प्रत्येक श्रोता की बात सुनकर उस का समाधान करने लगे।