-पुस्तक श्रीगीतगोविन्दम्
-लेखक श्रील जयदेव गोस्वामी
-प्रकाशक गौडीय वेदान्त पब्लिकेशन्स वृन्दावन
-पृष्ठसंख्या 415
-मूल्य 400/-
श्रील जयदेव जी का आविर्भाव काल 11वीं व 12वीं शक शताब्दी में है। उनके
आविर्भाव के स्थान के सम्बन्ध में मतभेद नज़र आता है। अधिकांश के मत में
इनका आविर्भाव स्थान वीरभूम ज़िला के अन्तर्गत केन्दुबिल्व ग्राम में हुआ
तथा किन्हीं के मत में उत्कल देश में तथा किन्हीं के मत में जयदेव जी का
जन्म स्थान दक्षिण में है। केन्दुबिल्व ग्राम, वीरभूम ज़िला के शीडड़ी से 20
मील दूर दक्षिण में अजय नदी के किनारे स्थित था। श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान
में इस प्रकार लिखा है –
श्रीजयदेव जी को अजय नदी से श्रीराधामाधव जी के श्रीविग्रह प्राप्त हुये
थे। इसी में यह भी लिखा है कि अजय नदी के किनारे कुशेश्वर शिव के स्थान पर
बैठ कर वे विश्राम करते थे तथा साधन भजन में निमग्न रहते थे। इनके पिता
श्रीभोजदेव जी और माता वामदेवी जी थीं। इन्होंने बंग देश के राजा लक्ष्मण
सेन के राजत्वकाल में राजधानी नवद्वीप नगर में राजा लक्ष्मण सेन के राज
प्रासाद के निकट ही किसी स्थान पर अनेक दिन निवास किया था।
श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में इस प्रकार की एक कहावत है कि एक मालिनी पुरुषोत्तम
धाम में कहीं बैठकर श्रीजयदेव जी द्वारा रचित श्रीगीत गोविन्द का भाव
विभोर होकर गान कर रही थी। श्रीजगन्नाथ देव जी उस गान से आकृष्ट होकर वहीं चले गये और जब तक गीत
गोविन्द का गान चलता रहा, वहाँ खड़े होकर वे सुनते रहे तथा उसकी समाप्ति पर
वापिस मन्दिर में आ गये।इसी बीच तत्कालीन उत्कलराज मन्दिर में श्रीजगन्नाथ देव जी के दर्शन करने
आए। उन्होंने श्रीजगन्नाथ देव जी के अंगों में धूल और उत्तरीय में काँटे
लगे देखे। इस सबका क्या कारण है, यह जानने के लिए उन्होंने पुजारी और
पण्डाओं से पूछा, पर वे लोग भी कुछ बता न पाए। जगन्नाथ जी के सेवकगण डर गए।
रात्रि में श्रीजगन्नाथ जी ने राजा को स्वप्न में बतलाया कि उनके अंगों के
काँटों और धूल के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। वे स्वयं ही एक मालिनी के
पास ‘गीत गोविन्द’ सुनने गए थे, जिसके कारण धूल और काँटे लग गए थे। उत्कल
राज स्वप्न में इस घटना के मर्म को समझ कर विस्मित हो गये तथा प्रात: काल
उन्होंने मालिनी को लाने के लिये पालकी भेजी। मालिनी से सब बातें जानकर
राजा ने उसे प्रतिदिन श्रीजगन्नाथ जी के सम्मुख ‘गीत गोविन्द’ का गान करने
का आदेश दिया। तब से आज भी मालिनी की वंश की रमणियाँ जगन्नाथ के सम्मुख
जाकर प्रतिदिन ‘गीत गोविन्द’ का पाठ करके जगन्नाथ जी को सुनाती हैं।
जयदेव जी ने अपने जीवन के शेष दिन किसी-किसी के मतानुसार जगन्नाथ क्षेत्र
में, किन्हीं के मत में केन्दुबिल्व ग्राम में और किन्हीं के मत में
वृन्दावन धाम में व्यतीत किए। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी
प्रभुपाद जी ने श्रीजयदेव जी का शेष जीवन श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में ही बीता,
ऐसा बताया।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने अपनी लीला के शेष 12 वर्षों में राधा भाव से
विभावित होकर गूढ़ प्रेमरस आस्वादन काल में श्रीजयदेव रचित ‘गीत गोविन्द’ का
आस्वादन किया था
श्रीजयदेव जी के केन्दुबिल्व ग्राम में वापस आकर शेष जीवन वहाँ व्यतीत करने
की कथा सुने जाने पर भी, उनके प्राणधन श्रीराधा-माधव जी की वृन्दावन से
केन्दुबिल्व ग्राम में आने की कोई बात नहीं सुनी जाती। जयपुर राजा ने
श्रीजयदेव जी के तिरोभाव के पश्चात उनके राधा-माधव विग्रह को केशीघाट,मथुरा
से लाकर जयपुर के घाटि नामक स्थान में प्रतिष्ठित किया। अब भी
श्रीराधा-माधव जी जयपुर राज्य में सेवित होते हैं।