-पुस्तक सच्चा सुख
-लेखक श्री जयदयाल गोयंदका जी
-प्रकाशक श्री गीता प्रेस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 62
-मूल्य 3/-
सच्चा सुख सुख और दुःख की परिभाषा सामान्य जन प्रायः करते हैं कि जो इन्द्रियों को
प्रिय लगे वह सुख और इन्द्रियों को अप्रिय लगे वह दुःख. सुख को हर प्राणी
चाहता है और दुःख के चाहने की बात तो दूर रही, दुःख के नाम से भी घबराता
है. यह मानव स्वभाव है कि सुख सभी चाहते हैं. सुख की मान्यता भी सभी लोगों
की अपनी तरह से अलग-अलग है. कोई धन को सुख मानता है, तो कोई यश, कीर्ति,
और भौतिक सुख को सुख मानता है तो कोई अच्छे से अच्छा खान पान को, कोई
देशाटन और पर्यटन में सुख की तलाश करता है. ऐसा सम्भव न होने पर दुःखी हो
जाता है.
सुख का अर्थ केवल कुछ पा लेना नहीं है, अपितु जो है, उस में संतोष कर लेना
भी है. जीवन में सुख तब नहीं आता जब अधिक पा लेते हैं, बल्कि तब आता है जब
अधिक पाने का भाव हमारे भीतर से चला जाता है. सोने के महल में आदमी दुःखी
हो सकता है.यदि पाने की इच्छा समाप्त नहीं हुई हो, यदि पाने की लालसा मिट
गई हो तो झोपडी में भी आदमी परम सुखी हो सकता है. असंतोषी को तो कितना भी
मिल जाए, वह हमेशा अतृप्त ही रहेगा.
सुख बाहर की नहीं, भीतर की सम्पदा है. यह सम्पदा धन से नहीं, धैर्य वा
संतुष्टि से प्राप्त होती है. हमारा सुख इसी बात पर निर्भर नहीं करना चाहिए
कि कितने धनवान हैं अपितु इस बात पर निर्भर करना चाहिए कि कितने संतुष्ट व
धैर्यवान है. सुख और प्रसन्नता हमारी सोच पर निर्भर करती है.
सुख गुण दो द्रव्यों का है. सुख गुण ईश्वर और प्रकृति दोनों का है, पर
दोनों सुखों में अंतर है. प्रकृति का सुख-दुःख मिश्रित है और क्षणिक होता
है. प्रकृति के सुख में चार प्रकार का दुःख है.( परिणाम, ताप, संस्कार और
गुण-वृति-विरोध ). ईश्वर के आनन्द में ये चार दुःख नहीं होते. ऋषि पतंजलि
जी ने योग दर्शन में सूत्र दिया है—-परिणाम ताप
संस्कारदुःखैर्गुणवृतिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः. विवेकी अर्थात
योगी को संसार के सभी पदार्थो में ये चार दुःख दीखते हैं. सुख के साथ दुःख
के सूक्ष्म बीज चिपके हैं