-पुस्तक योगवासिष्ठ
-लेखक श्रीवाल्मीक
-प्रकाशक गीताप्रस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 608
-मूल्य 180/-
आध्यात्मिकता का आखरी सोपान है - श्री वसिष्ठ जी का उपदेश ।
यह एकदम ऊँचा है, विहंग मार्ग है । यह अगर जम जाय न, तो सुनते-सुनते बात
बन जाय और अगर नहीं जमता तो बार-बार सुनें, बहुत फायदा होगा । धनवान या
निर्धन होना, विद्वान या अविद्वान होना, सुंदर या कुरूप होना- यह शाश्वत
नहीं हैं । सुरूपता या कुरुपता यह 25 -50 साल के खिलवाड़ में दिखती है ।
शाश्वत तो आत्मा है और उस पर कुरूपता का प्रभाव है न स्वरूपता का, न
विद्वत्ता का प्रभाव है न आविद्वत्ता का । तरंग चाहे कितनी भी बड़ी हो
लेकिन है तो अंत में सागर में ही लीन होने वाली और चाहे कितनी भी छोटी हो
लेकिन है तो पानी ही । ऐसे ही बाहर से आदमी चाहे कितना भी बड़ा या छोटा
दिखता हो किंतु उसका वास्तविक मूल तो चैतन्य परमात्मा ही है । उस चेतन
परमात्मा के ज्ञान को प्रकट करने का काम यह ग्रंथ करता है
विद्वत्जनों का मत है कि सुख और दुख, जरा और मृत्यु, जीवन और जगत, जड़ और चेतन, लोक और परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत् और असत्, मन और इंद्रियाँ, धारणा और वासना आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें ‘योगविशिष्ठ’ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। मोक्ष प्राप्त करने का एक ही मार्ग है मोह का नाश। योगवासिष्ठ में जगत की असत्ता और परमात्मसत्ता का विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से प्रतिपादन है। पुरुषार्थ एवं तत्त्व-ज्ञान के निरूपण के साथ-साथ इसमें शास्त्रोक्त सदाचार, त्याग-वैराग्ययुक्त सत्कर्म और आदर्श व्यवहार आदि पर भी सूक्ष्म विवेचन है
योगविशिष्ठ ग्रन्थ छः प्रकरणों (458 सर्गों) में पूर्ण है। योगविशिष्ठ की श्लोक संख्या 29 हजार है। महाभारत, स्कन्द पुराण एवं पद्म पुराण के बाद यह चौथा सबसे बड़ा हिन्दू धर्मग्रन्थ है।
- वैराग्यप्रकरण
- मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण
- उत्पत्ति प्रकरण
- स्थिति प्रकरण
- उपशम प्रकरण
- निर्वाण प्रकरण