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14 Aug 2021

प्रेम की पीर

 


-पुस्तक          प्रेम की पीर

-लेखक          श्रीहित भोरीसखीजी

-प्रकाशक       रस भारती संस्थान वृन्दावन

-पृष्ठसंख्या       383

-मूल्य              251/-

 

 

प्रेम की पीर राधावल्लभ संप्रदाय के एक रसिक संत भोरी सखी (भोरी सखी) के नाम से लोकप्रिय श्री भोलानाथ जी द्वारा रचित छंदों का एक संग्रह है। प्रेम की पीर छंद दिल दहला देने वाले और गहराई से चलने वाले हैं क्योंकि वे श्री लाडली जू के लिए भोरी सखी की तीव्र लालसा (विरह) और प्रेम का वर्णन करते हैं। छंदों की समग्र मनोदशा नम्रता और आत्म-निंदा में से एक है क्योंकि वह रोती है और रोती है और अपने प्रिय से अलगाव के गंभीर दर्द का अनुभव करती है।


सखी संप्रदाय, निम्वार्क मत की एक शाखा है जिसकी स्थापना  स्वामी हरीदासजी (जन्म सम० १४ ४१ वि०) ने की थी। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको कृषण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी संप्रदाय के साधु विषेश रूप से भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करते हैं।

छतरपुरके महाराज द्वारा बुलाए जानेपर ये पुनः छतरपुर आ गए, और फिर धीरे-धीरे छतरपुर में भी उनका मन ऊबने लगा । ये वाणीग्रंथों का पाठ करते और उसमे वर्णित श्रीराधा-कृष्ण की दिव्य लीलाओं का चिंतन करते रहते, और ब्रज के सुमधुर प्रेमरस में हर समय डूबे रहते थे इसीसे उनके ह्रदय देश में प्रेम के विरह की अग्नि से ओतप्रोत पदों का सागर उमड़ उठा जिन्हें भोरीसखी के पद का नाम दिया गया। ये पद ब्रजवासियों की उत्कृष्ट अभिलाषा को दिखलाते हैं-

        दीजै मोहि वास व्रज माहीं ।
        जुगल नामकौ भजन निरंतर, और कदम्बन छाहीं ।।
         बृज-बासिनके जूठन टूटा, आरु जमुना कौ पानी । 
        रसिकनकी सत-संगत दीजै, सुनियो रसभरी बानी ।।

 



स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।

यह संप्रदाय "जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी " के आधार पर अपना समस्त जीवन "राधा-कृष्ण सरकार" को निछावर कर देती है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को "सोलह सिंगार" नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी संप्रदाय के साधुओं में तिलक लगाने का अलग ही रीति है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं, यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं।

 

  • तुमने आज लौं बात न पूछी, को द्वारे चिल्लाते न पूछी ।
  • जीवन बीत्यौ गोद पसारे, कहा लोभ ललचात न पूछी ।।
  • मैं नित हौंस भरी कहिबे की, हंसि कबहूं कुसलात न पूछी ।
  • कोटि उपाय कियै पै तुमने, का सोचत दिन रात न पूछी ।।
  • कैसे कटत दिवस-निसि तेरे, का दुख सूखत गात न पूछी ।
  • भोरी दीन दुखी आरत सौं, विहंसि हृदयकी बात न पूछी ।।

 

मैंने तो अपनी ओरसे सारे नाते तुमसे ही मान रखे हैं पर मुझे संदेह है क्या तुमभी मुझे अपनी चेरी मानती हो ? यदि तुम मुझे अपना मानती तो मेरी सुध अवश्य लेती, मुझसे पूछती कि भोरी आखिर तू चाहती क्या है ?

 ऐसा कहा जाता है कि भोरी सखी का विलाप इतना भावुक और मार्मिक था कि ब्रजवासी (ब्रजवासी) श्री लाडली जू से उन्हें दर्शन देने की प्रार्थना करते थे। प्रेम की पीर को सुनने या उसका पाठ करने से श्री श्यामाश्याम के प्रति हमारा प्रेम और प्रगाढ़ हो जाएगा।