-पुस्तक श्रावणमासमाहात्म्य सानुवाद
-लेखक राधेश्याम खेमका जी
-प्रकाशक गीताप्रेस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 288
-मूल्य 40/-
मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है । चौरासी लाख योनियोंमें भटकता हुआ प्राणी पापोंके क्षीण होनेपर भगवान्की कृपावश दुर्लभ मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है । मनुष्य-योनिको दुर्लभ इसलिये कहा जाता है; क्योंकि अन्य योनियाँ जहाँ केवल भोगयोनियाँ ही हैं; वहीं मनुष्ययोनि एकमात्र कर्मयोनि भी है । ऐसा दुर्लभ अवसर पाकर भी यदि मनुष्य उसे व्यर्थ गँवा दे अथवा पुन: अधोगतिको प्राप्त हो जाय तो यह विडम्बना ही होगी । इसीलिये हमारे शास्त्रोंमें ऐसे विधि-विधानोंका वर्णन है, जिससे मनुष्य अपने परमकल्याणका मार्ग प्रशस्त करते हुए मुक्तिकी ओर अग्रसर हो सके ।
पुराणोंमें विभिन्न तिथियों, पर्वों, मासों आदिमें करणीय अनेकानेक कृत्योंका सविधि प्रेरक वर्णन प्राप्त होता है, जिनका श्रद्धापूर्वक पालन करके मनुष्य भोग तथा मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर सकता है ।
निष्काम भावसे तो व्यक्ति कभी भी भगवान्की पूजा, जप, तप, ध्यान आदि कर सकता है, परंतु सकाम अथवा निष्काम किसी भी भावसे कालविशेषमें जप, तप, दान, अनुष्ठान आदि करनेसे विशेष फलकी प्राप्ति होती है-यह निश्चित है । पुराणोंमें प्राय: सभी मासोंका माहात्म्य मिलता है, परंतु वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ तथा पुरुषोत्तममासका विशेष माहात्म्य दृष्टिगोचर होता है, इन मासोंकी विशेष चर्या तथा दान, जप, तप, अनुष्ठानका विस्तृत वर्णन ही नहीं प्राप्त होता; अपितु उसका यथाशक्ति पालन करनेवाले बहुत-से लोग आज भी समाजमें विद्यमान हैं । मासोंमें श्रावणमास विशेष है । भगवान्ने स्वयं कहा है—
द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभ: श्रवणार्हं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मत: ।।
श्रवणर्क्षं पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावण: स्मृत:। यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिद: श्रावणोऽप्यत: ।।
अर्थात् बारहों मासोंमें श्रावण मुझे अत्यन्त प्रिय है । इसका माहात्म्य सुननेयोग्य है । अत: इसे श्रावण कहा जाता है । इस मासमें श्रवण-नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होती है, इस कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है । इसके माहात्म्यके श्रवणमात्रसे यह सिद्धि प्रदान करनेवाला है, इसलिये भी यह श्रावण संज्ञावाला है ।
श्रावणमास चातुर्मासके अन्तर्गत होनेके कारण उस समय वातावरण विशेष धर्ममय रहता है । जगह-जगह प्रवासी संन्यासी-गणों तथा विद्वान् कथावाचकोंद्वारा भगवान्की चरितकथाओका गुणानुवाद एवं पुराणादि ग्रन्थोंका वाचन होता रहता है। श्रावणमासभर शिवमन्दिरोंमें श्रद्धालुजनोंकी विशेष भीड़ होती है, प्रत्येक सोमवार अनेक लोग वत रखते हैं तथा प्रतिदिन जलाभिषेक भी करते हैं । जगह-जगह कथासत्रोंका आयोजन; काशीविश्वनाथ, वैद्यनाथ, महाकालेश्वर आदि द्वादश ज्योतिर्लिंगोंतथा उपलिंगोंकी ओर जाते काँवरियोंके समूह; धार्मिक मेलोंके आयोजन; भजन-कीर्तन आदिके दृश्योंके कारण वातावरण परमधार्मिक हो उठता है । महाभारतके अनुशासनपर्व (१०६। २७)-में महर्षि अंगिराका वचन है-
श्रावण नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत् । यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ।।
अर्थात 'जो मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावणमासको बिताता है, वह विभिन्न तीर्थोमें स्नान करनेके पुण्यफलसे युक्त होता है और अपने कुटुम्बीजनोंकी वृद्धि करता हैं।'
स्कन्दमहापुराणमें तो भगवान्ने यहाँतक कहा है कि श्रावणमासमें जो विधान किया गया है, उसमेंसे किसी एक व्रतका भी करनेवाला मुझे परम प्रिय है—
किं बहूकेन विप्रर्षे श्रावणे विहितं तु यत् । तस्य चैकस्य कर्तापि मम प्रियतरो भवेत् ।।
स्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत श्रावणमासका विस्तृत माहात्म्य प्राप्त होता है, इसमें तीस अध्याय हैं, जिनमें श्रावणमासके शास्त्रीय महत्त्वका सांगोपांग वर्णन मिलता है । श्रद्धालु पाठकोंके लिये इसको प्रथम बार गीताप्रेससे सानुवाद प्रकाशित किया जा रहा है ।
आशा है, मुमुक्षु धार्मिकजन इससे यथासम्भव लाभ प्राप्त करेंगे ।
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