11 Aug 2021

वयालीस-लीला

 

 

 

  - पुस्तक       वयालीस  लीला

-लेखक         श्री हित ध्रुवदास जी

-प्रकाशक     श्रीहित साहित्य प्रकाशन वृन्दावन

-पृष्ठसंख्या      852

-मूल्य           800/-

 

 

श्री राधा बल्लभ संप्रदाय के बृजभाषा साहित्य में श्री ध्रुवदास जी की बयालीस लील का महान पूर्ण स्थान है। श्री हिट-धर्म के मरमो का प्रकाशन करने में आदितिय है।
श्रीहित धर्म के ममॆज्ञ रसिक प्रवर स्वामी श्रीहितदासजी महाराज ने ग्रंथ की व्याख्या करके जो कृपा की है उससे सम्प्रदायिक सहित में बिशेष वृध्दि हुई है।

व्याख्या के दोनो गुण-मूल से बहार न जाना और अनाव्श्यक बिस्तार न करना आदि का ध्यान रखा गया है।
स्वामी जी ने प्रत्येक लीला में अनेक शीर्षको से प्रतिपाद्य विषयों का निर्देश करके एक आवश्यक अंग की पूर्ति की है।
व्याख्या के आरंभ में विस्तृत प्राक्कथन  लिखकर स्वामी जी ने अनेक अनालोचित विषयों की शमिक्षा की है। जो की संप्रदाय के अन्य साहित्य में सहायक होगी।
मैं स्वामी जी की इस परम उपयोगी व्याख्या की साहित्य-जगत में सम्मानपूर्ण स्थान-प्राप्ति की कामना करता हूं

 श्री सेवकजी एवं श्री ध्रुवदासजी राधावल्लभ सम्प्रदाय के आरम्भ के ऐसे दो रसिक महानुभाव हैं, जिन्होंने श्री हिताचार्य की रचनाओं के आधार पर इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को सुस्पष्ट रूप-रेखा प्रदान की थी |  सम्प्रदाय के प्रेम-सिद्धान्त और रस पद्धति के निर्माण में श्री ध्रुवदासजी का योगदान अत्यन्त महतवपूर्ण है |

        ध्रुवदासजी देवबंद, जिला सहारनपुर के रहने वाले थे | इनका जन्म वहाँ के एक ऐसे कायस्थ कुल में हुआ था, जो आरम्भ से ही श्री हिताचार्य के सम्पर्क में आ गया था और उनका कृपा भाजन बन गया था |  इनका जन्म सं. १६२२ माना जाता है इनके पिता श्यामदास जी श्री हितप्रभु के शिष्य थे ओर ये स्वयं उनके तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथ गोस्वामी के कृपापात्र थे | इसी से इनके चरित्रकार महात्मा भगवत मुदितजी ने इनको 'परम्पराइ अनन्य उपासी' लिखा है |

  ध्रुवदासजी से पूर्व एवं उनके समकालीन प्राय: सभी श्री राधा-कृष्णोपासक महानुभावों ने फुटकर पदों में लीला-गान किया था | ये पद अपने आप में पूर्ण होते हैं, किन्तु उनमें लीला के किसी एक अंग की ही पूर्णता होती है, अन्य अंगो की अभिव्यक्ति के लिए दुसरे पदों की रचना करनी होती है | ध्रुवदासजी ने नित्य-विहार-लीला को एक अखण्ड धारा बताया है --

                                          नित्य विहार आखंडित धारा |
                                           एक वैस रस जुगल विहारा ||

No comments: