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14 Aug 2021

लीला-रस-तरङ्गिणी (पाँच भाग )

 


 

-पुस्तक          लीला-रस-तरङ्गिणी 

 -लेखक         ललिता बबूता

-प्रकाशक       राधा प्रेस दिल्ली    

-पृष्ठसंख्या      2000

-मूल्य              1100/-

 


 

"लीला-रस-तरंगिणी" में लीलाओं का अत्यंत सारस इतिहास है।

श्रीकृष्णलीला तरंगिणी नारायण तीर्थ द्वारा रचित एक तरंगिणी है। तरंगिणी, नृत्य नाटिका के लिये अत्यन्त उपयुक्त होती है और इसीलिये पिछली दो शताब्दियों से भारतीय शास्त्रीय नृतक कृष्णलीला तरंगिणी का उपयोग बहुत अच्छी प्रकार से करते आ रहे हैं। इस तरंगिणी में 12 तरंगम, 153 गीत, 302 श्लोक तथा 31 चूर्णिका हैं।


ये छवी बस रहे द्रृग मेरे।


इन तन लखि ये बेणु बजावत

         ये मुस्कावति पिय तन हेरे।

ये कछु नैनन महँ वतरावत

         ये सिहरीं सरकी कछु नेरे।

उमागि रसालय भुज भरि लीन्ही

          दुहुँजन अरुझे रस उरझेरे।

ये छवी बस रहे द्रृग मेरे।

 

'रस-तरङ्गिणी' के अनुसार देव ने रसों के लौकिक और अलौकिक के रूप में भी भेद किये हैं । अलौकिक के भी तीन भेद किये हैं--(१) स्वापनिक, (२) मनोरथिक और (३) भोपना यिक

                                                  


रस  का शाब्दिक अर्थ है - आनन्द। काव्य में जो आनन्द आता है, वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। 

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस के जिस भाव से यह अनुभूति होती है कि वह रस है, स्थायी भाव होता है। रस , छंद और अलंकार- काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। 

 

आवत चले युगलवर सुन्दर ।

वन वीथिन्ह महँ लतनि निवारत।

रुकि रुकि चलत ठहरि बतरावत।

हँसि हँसि नयननि कोर निहारत।

..................

तरु कीओटखडे भे दोऊ,

झुकत झकोरत ढुरि मुरि झाँकत।

मोलि कपोल भजनि भुज जोरत।

हिलमिल मदन विभव जनु आँकत।

झुकत झकोरत ढुरि मुरि झाँकत,

आवत चले युगलवर सुन्दर ।