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22 Aug 2021

परलोक और पुनर्जन्म (कल्याण )

 




-पुस्तक         परलोक और पुनर्जन्म (कल्याण )

-लेखक         हनुमानप्रसाद पोदार

-प्रकाशक      गीताप्रेस गोरखपुर

-पृष्ठसंख्या      704

-मूल्य             220/-

 

 

 भगवत्कृपा से कल्याण का प्रकाशन ईस्वी सन 1926 से लगातार हो रहा है। इस पत्रिका के आद्य संपादक नित्यलीलालीन भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार थे। कल्याण के प्रथम अंक में प्रकाशित संपादकीय वक्तव्य पठन सामग्री में उधृत है।

आध्यात्मिक जगत में कल्याण के विशेषांकों का संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान है। प्रतिवर्ष जनवरी माह में साधकों के लिये उपयोगी किसी आध्यात्मिक विषय पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित होता है। शेष ग्यारह महीनों में प्रतिमाह पत्रिका प्रकाशित होती है। 

 

पुनर्जन्म एक भारतीय मान्यता है जिसमें जीवात्मा के जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र, पुराण , गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस मान्यता के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। ८४ लाख योनियों में जीवात्मा अपने धर्म को प्रदर्शित करता है, आत्मज्ञान होने के बाद श्रृंखला रुकती है, जिस को मोक्ष के नाम से जाना जाता है। फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।


भारतीय दर्शनशास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल में ऋषियों ने स्वयं की खोज की और पाया कि स्वयं शरीर नहीं है परंतु शरीर के अंदर स्थित आत्मा-जो निराकार है-उनका मूल स्वरूप है। आत्मा को जानने की इस प्रक्रिया को आत्मसाक्षात्कार के नाम से जाना जाता है। आत्मा के साक्षात्कार हेतु ज्ञान , योग , भक्ति आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं जिसका आविर्भाव प्राचीन काल में हुआ है। ऋषियों ने स्वयं को जानकर अपने जन्मांतर के ज्ञान की भी प्राप्ति की और पाया कि उनके कई जन्म थे। स्वयं का मूल स्वरूप आत्मा जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती; ये पहले था, आज है और कल भी रहेगा। शरीर के मृत्यु के बाद जीवात्मा पुनः जन्म धारण करता है और ये चक्र चलता ही रहता है। पुनर्जन्म का कारण सांसारिक पदार्थों में आसक्ति आदि है। जब व्यक्ति साधना के बल पर सांसारिक दुविधाओं से मुक्त होकर स्वयं को जान लेता है तब जन्म की प्रक्रिया से भी मुक्ति पा लेता है। फिर भी अपनी स्वेच्छा से जन्म धारण कर सकता है। मूल रूप से सभी को अपने पूर्व के जन्मों की विस्मृति हो जाती है। योग आदि क्रियाओं से आत्मा को जानकर ध्यान में पूर्व के जन्मों के ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। ज्ञानी पुरुष दूसरों के जन्मांतर के विषय में भी बता सकते हैं अतः ऐसे सदगुरु से भी पूर्वजन्म के ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। पुराण आदि में भी जन्म और पुनर्जन्मों का उल्लेख है जिससे अमुक व्यक्तियों के पूर्वजन्म के विषय में जानकारी मिलती है। कभी बाल्यकाल में किसी बालक को पूर्वजन्म का ज्ञान होने के प्रसंग भी सामने आए हैं।

पुनर्जन्म की प्रक्रिया के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में स्पष्ट जानकारी दी गई है जो अत्यंत लोकप्रिय भी है। कर्मयोग का ज्ञान देते समय भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहाँ कि, 'सृष्टि के आरंभ में मैंने ये ज्ञान सूर्य को दिया था। आज तुम्हें दे रहा हूँ।' अर्जुन ने आश्वर्यचकित होकर प्रश्न पूछा कि, 'आपका जन्म तो अभी कुछ साल पूर्व हुआ और सूर्य तो कई सालों से है। सृष्टि के आरंभ में आपने सूर्य को ये (कर्मयोग का) ज्ञान कब दिया?' कृष्ण ने कहाँ कि, 'तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में कृष्ण-अर्जुन का ये पूरा संवाद निम्नलिखित है

श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग-विधा का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान (सूर्य देव) को दिया था, विवस्वान ने यह उपदेश अपने पुत्र मनुष्यों के जन्म-दाता मनु को दिया और मनु ने यह उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया।

हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने बिधि-पूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से वह परम-श्रेष्ठ विज्ञान सहित ज्ञान इस संसार से प्राय: छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया।

आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग (आत्मा का परमात्मा से मिलन का विज्ञान) तुझसे कहा जा रहा है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र भी है, अत: तू ही इस उत्तम रहस्य को समझ सकता है।  

अर्जुन ने कहा - सूर्य देव का जन्म तो सृष्टि के प्रारम्भ हुआ है और आपका जन्म तो अब हुआ है, तो फ़िर मैं कैसे समूझँ कि सृष्टि के आरम्भ में आपने ही इस योग का उपदेश दिया था?

अर्थात-श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।

इसमें श्रीकृष्ण ने पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है और स्वयं (कृष्ण) को अपने पिछले कई जन्मों की जानकारी होने की बात भी रखी है

 

 

21 Aug 2021

साधनाङ्क कल्याण

 


-पुस्तक        साधनाङ्क   कल्याण

-लेखक         हनुमानप्रसाद पोदार

-प्रकाशक      गीताप्रेस गोरखपुर

-पृष्ठसंख्या      958

-मूल्य             250/-

 

 

 भगवत्कृपा से कल्याण का प्रकाशन ईस्वी सन 1926 से लगातार हो रहा है। इस पत्रिका के आद्य संपादक नित्यलीलालीन भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार थे। कल्याण के प्रथम अंक में प्रकाशित संपादकीय वक्तव्य पठन सामग्री में उधृत है।

आध्यात्मिक जगत में कल्याण के विशेषांकों का संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान है। प्रतिवर्ष जनवरी माह में साधकों के लिये उपयोगी किसी आध्यात्मिक विषय पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित होता है। शेष ग्यारह महीनों में प्रतिमाह पत्रिका प्रकाशित होती है।


संतवाणी-अङ्क कल्याण

 


-पुस्तक        संतवाणी-अङ्क  कल्याण

-लेखक         हनुमानप्रसाद पोदार

-प्रकाशक      गीताप्रेस गोरखपुर

-पृष्ठसंख्या      832

-मूल्य             230/-

 

 

भगवत्कृपा से कल्याण का प्रकाशन ईस्वी सन 1926 से लगातार हो रहा है। इस पत्रिका के आद्य संपादक नित्यलीलालीन भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार थे। कल्याण के प्रथम अंक में प्रकाशित संपादकीय वक्तव्य पठन सामग्री में उधृत है।

आध्यात्मिक जगत में कल्याण के विशेषांकों का संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान है। प्रतिवर्ष जनवरी माह में साधकों के लिये उपयोगी किसी आध्यात्मिक विषय पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित होता है। शेष ग्यारह महीनों में प्रतिमाह पत्रिका प्रकाशित होती है। 
बीते दिनो श्रीमद्शिवपुराण कथा का आयोजन किया गया। समापन के बाद हवन यज्ञ पर आहुतियां दी गई। गुरुवार से संतवाणी कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। दूसरे और आखिरी दिन शुक्रवार को श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए नेपाल राजगुरू पंडित अर्जुन प्रसाद वास्तोला ने ज्ञान शब्द की व्याख्या की। बताया कि उनके द्वारा माताओं को सिर ढकने के लिए अलग वस्त्रत की शिक्षा दी गई है। एक ही धोती को पहनना और सिर ढकना मना है। शारदा पीठाधीश्वर त्रिलोकीस्वरूप महाराज ने घर में रखने वाले पात्रों के बारे में बताया। उन्होंने जैविक खाद का प्रयोग करने की बात कही। शिक्षा के क्षेत्र में ऋषि परंपरा का ज्ञान बताया और प्रथमा तक संस्कृत विद्यालय में पढ़ने की बात बताई। इसके बाद अनुरुद्ध आचार्य ने संसारों की चर्चा की। उन्होंने बताया कि जब बच्चा रोता था तो पशुओं की क्रूरता का भय दिखाकर चुप कराया जाता था। लकिन आज मां बाबा का नाम लेकर चुप कराया जाता है। उन्होंने सोलह संस्कारों पर प्रकाश डाला। इसके बाद अज्ञात दर्शन जी ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि आनंद के जरिए ही परमात्मा को पाया जा सकता है। इस दौरान ब्राह्मण अंतर्राष्ट्रीय संगठन के जिलाध्यक्ष जगतराम त्रिपाठी, जयराम शुक्ल, सूर्यप्रकाश मिश्र आदि लोग व्यवस्थाओं में डटे रहे।  


वोधकथा-अंङ्क कल्याण

 



-पुस्तक          वोधकथा-अंङ्क  कल्याण

-लेखक         हनुमानप्रसाद पोदार जी

-प्रकाशक      गीताप्रेस गोरखपुर

-पृष्ठसंख्या      506

-मूल्य             250/-

 

 

भगवत्कृपा से कल्याण का प्रकाशन ईस्वी सन 1926 से लगातार हो रहा है। इस पत्रिका के आद्य संपादक नित्यलीलालीन भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार थे। कल्याण के प्रथम अंक में प्रकाशित संपादकीय वक्तव्य पठन सामग्री में उधृत है।

आध्यात्मिक जगत में कल्याण के विशेषांकों का संग्रहणीय साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित स्थान है। प्रतिवर्ष जनवरी माह में साधकों के लिये उपयोगी किसी आध्यात्मिक विषय पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित होता है। शेष ग्यारह महीनों में प्रतिमाह पत्रिका प्रकाशित होती है। 
 
 कर्म क्या है?* शिक्षा 
 
एक राजा हाथी पर बैठकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहा था।अचानक वह एक दुकान के सामने रुका (और अपने मंत्री से कहा- "मुझे नहीं पता क्यूँ, पर मैं इस दुकान के स्वामी को फाँसी देना चाहता हूँ।*
 यह सुनकर मंत्री को बहुत दु:ख हुआ।लेकिन जब तक वह राजा से कोई कारण पूछता, तब तक राजा आगे बढ़ गया।*
अगले दिन,मंत्री उस दुकानदार से मिलने के लिए एक साधारण नागरिक के वेष में उसकी दुकान पर जा पहुँचा। उसने दुकानदार से ऐसे ही पूछ लिया कि उसका व्यापार कैसा चल रहा है? दुकानदार चंदन की लकड़ी बेचता था। उसने बहुत दुखी होकर बताया कि मुश्किल से ही उसे कोई ग्राहक मिलता है। लोग उसकी दुकान पर आते हैं, चंदन को सूँघते हैं और चले जाते हैं। वे चंदन कि गुणवत्ता की प्रशंसा भी करते हैं, पर ख़रीदते कुछ नहीं। अब उसकी आशा केवल इस बात पर टिकी है कि राजा जल्दी ही मर जाएगा। उसकी अन्त्येष्टि के लिए बड़ी मात्रा में चंदन की लकड़ी खरीदी जाएगी। वह आसपास अकेला चंदन की लकड़ी का दुकानदार था,इसलिए उसे पक्का विश्वास था कि राजा के मरने पर उसके दिन बदलेंगे।*

 *अब मंत्री की समझ में आ गया कि राजा उसकी दुकान के सामने क्यों रुका था, और क्यों दुकानदार को मार डालने की इच्छा व्यक्त की थी। शायद दुकानदार के नकारात्मक विचारों की तरंगों ने राजा पर वैसा प्रभाव डाला था, जिसने उसके बदले में दुकानदार के प्रति अपने अन्दर उसी तरह के नकारात्मक विचारों का अनुभव किया था।*
 *बुद्धिमान मंत्री ने इस विषय पर कुछ क्षण तक विचार किया। फिर उसने अपनी पहचान और पिछले दिन की घटना बताये बिना कुछ चन्दन की लकड़ी ख़रीदने की इच्छा व्यक्त की। दुकानदार बहुत खुश हुआ। उसने  चंदन को अच्छी तरह कागज में लपेटकर मंत्री को दे दिया।*
 

*जब मंत्री महल में लौटा तो वह सीधा दरबार में गया जहाँ राजा बैठा हुआ था और सूचना दी कि चंदन की लकड़ी के दुकानदार ने उसे एक भेंट भेजी है। राजा को आश्चर्य हुआ। जब उसने बंडल को खोला तो उसमें सुनहरे रंग के श्रेष्ठ चंदन की लकड़ी और उसकी सुगंध को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। प्रसन्न होकर उसने चंदन के व्यापारी के लिए कुछ सोने के सिक्के भिजवा दिये। राजा को यह सोचकर अपने हृदय में बहुत खेद हुआ कि उसे दुकानदार को मारने का अवांछित विचार आया था।*

 जब दुकानदार को राजा से सोने के सिक्के प्राप्त हुए, तो वह भी आश्चर्य चकित हो गया। वह राजा के गुण गाने लगा जिसने सोने के सिक्के भेजकर उसे ग़रीबी के अभिशाप से बचा लिया था। कुछ समय बाद उसे अपने उन कलुषित विचारों की याद आयी जो वह राजा के प्रति सोचा करता था। उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ऐसे नकारात्मक विचार करने पर बहुत पश्चात्ताप हुआ।*अर्थात*

यदि हम दूसरे व्यक्तियों के प्रति अच्छे और दयालु विचार रखेंगे, तो वे सकारात्मक विचार हमारे पास अनुकूल रूप में ही लौटेंगे। लेकिन यदि हम बुरे विचारों को पालेंगे, तो वे विचार हमारे पास उसी रूप में लौटेंगे।*
 आया समझ अब....कर्म क्या है...?*
इस प्रकार की शिक्षाप्रद कथाऔ का अनूठा संग्रह हैं ।