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24 Aug 2021

व्यवहार में परमार्थ की कला

 

 


-पुस्तक         व्यवहार में परमार्थ की कला  

-लेखक         श्री जयदयाल गोयन्दका जी

-प्रकाशक      गीताप्रेस गोरखपुर

-पृष्ठसंख्या      208

-मूल्य             25/-

 

 

इस समय सारे संसारमें द्वेष, कलह और मारकाट मची हुई है । सभी लोग एक दूसरेका विनाश करनेमें लगे हुए हैं, प्रकृति मानो पूर्णरूपसे क्षुब्ध हो रही है, किसीके जीवनमें सुखशान्ति नहीं है, प्राणिमात्र विकल है । यह सब ईश्वरमें अविश्वास, सच्चे धर्मपर अनास्था और सदाचारके लोपका परिणाम है । इस भीषण स्थितिसे त्राण पाने और मानवजीवनके प्रधान लक्ष्य भगवस्त्प्राप्तिके पुनीत पथपर लोगोंको अग्रसर करनेके लिये आवश्यकता है ईश्वरीय भावों के पवित्र प्रचारकी । ऐसे आध्यात्मिक भाव सत्यसंगके बिना सहजमें नहीं मिल सकते । परन्तु सत्युरुषोंका सद्र: सब लोगोंको मिलना कठिन है । इसलिये सत्युरुषोंकी वाणीका प्रचार किया जाता है, जिससे दूर-दूर के स्थानोंमें रहनेवाले लोग भी अनायास ही सत्यसंग लाभ उठा सकें । ' तत्त्वचिन्तामणि' ग्रन्थ ऐसा ही अन्ध है । अबतक इसके चार भाग प्रकाशित हो चुके हैं और उनसे लोगोंको बड़ा लाभ पहुँचा है । यह उसका पाँचवाँ भाग है । इसमें भी 'कल्याण 'में प्रकाशित लेखोंका ही संग्रह है । इन लेखोंमें अनुभवसिद्ध तत्त्वोंका विवेचन और आदर्श सदगुणोंका प्रदर्शन बड़े ही सुन्दर ढंगसे किया गया है । आसुरी दुर्गुणोंसे छूटकर अपनी ऐहिक और पारलौकिक उन्नति चाहनेवाले और मनुष्यजीवनमें परम ध्येयकी प्राप्ति करनेकी इच्छा रखनेवाले प्रत्येक नरनारीको इस अन्धका अध्ययन और मनन करना चाहिये । आशा है, मेरे इस निवेदनपर सब लोग ध्यान देंगे ।