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1 Oct 2021

बृज की बार्ता

 


-पुस्तक                बृज की बार्ता

-लेखक                श्री श्यामदास जी

-प्रकाशक            श्री हरिनाम संकीर्तन प्रेस वृंदावन

-पृष्ठसंख्या             168

-मूल्य                    100/-
 
 
 

ब्रज संस्कृति का ज़िक्र आते ही जो सबसे पहली आवाज़ हमारी स्मृति में आती है, वह है घाटों से टकराती हुई यमुना की लहरों की आवाज़…   श्री  कृष्ण के साथ-साथ खेलकर यमुना ने महात्मा वुद्ध और महावीर स्वामी के प्रवचनों को साक्षात उन्हीं के मुख से अपनी लहरों को थाम कर सुना। यमुना की ये लहरें रसखान और रहीम के दोहों पर झूमी हैं… सूरदास  और मीरा के पदों पर नाची हैं। यमूूना  ने ही जन्म दिया ब्रज-संस्कृति को…बृज की संस्कृति के साथ ही 'ब्रज' शब्द का चलन भक्ति आन्दोलन के दौरान पूरे चरम पर पहुँच गया। चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की कृष्ण भक्ति की व्यापक लहर ने ब्रज शब्द की पवित्रता को जन-जन में पूर्ण रूप से प्रचारित कर दिया। सूर, मीरा और रसख़ान के भजन तो जैसे आज भी ब्रज के वातावरण में गूंजते रहते हैं। कृष्ण भक्ति में ऐसा क्या है जिसने मीरा से राजसी रहन-सहन छुड़वा दिया और सूरदास की रचनाओं की गहराई को जानकर विश्व भर में इस विषय पर ही शोध होता रहा कि सूरदास वास्तव में दृष्टिहीन थे भी या नहीं। कहते हैं कि आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं खोजे जाते लेकिन आस्था जन्म देती है संस्कृति को और गंगा और यमुना ने भी हमें सभ्यता और संस्कृति दी हैं।  महाभारत कालीन सभ्यता और ब्रज का ‘प्राचीनतम प्रजातंत्र’ जिसके लिए बुद्ध ने मथुरा प्रवास के समय अपने प्रिय शिष्य (उनके भाई और वैद्य भी) ‘आनन्द’ से कहा था कि 'यह (मथुरा) आदि राज्य है, जिसने अपने लिये महासम्मत (राजा) चुना था।यमुना की देन यह संस्कृति अब ‘ब्रज संस्कृति’ कहलाती है। इस प्रकार ब्रज की संस्कृति यद्यपि एक क्षेत्रीय संस्कृति रही है, परंतु यदि इतिहास के आधार पर हम इसके विकास की चर्चा करें तो हमें ज्ञात होगा कि यह संस्कृति प्रारंभ से ही संघर्षशील, समन्वयकारी और अपनी विशिष्ट परंपराओं के कारण देश की मार्गदर्शिका, क्षेत्रीय होते हुए भी सार्वभौमिक तथा गतिशील व अपराजेय, साथ ही बड़ी उदात्त भी रही है। यह पूरे देश के आकर्षण का केंद्र रही है तथा इसी कारण इसे प्रदेश को सदा श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता रहा है। वैदिक काल से ही यह क्षेत्र तपोवन संस्कृति का केंद्र रहा।