-पुस्तक बृज के व्रत-उत्सव
-लेखक श्री श्यामदास जी
-प्रकाशक श्री हरिनाम संकीर्तन प्रेस वृंदावन
-पृष्ठसंख्या 176
-मूल्य 125/-
प्रकृति पूजा भी ब्रज के रोम- रोम में रमी है। जैसा हम कह चुके हैं कि
ब्रज की संस्कृति मूलतः वन्य संस्कृति थी, अतः वृक्षों, पर्वतों, पक्षियों
की पूजा भी ब्रज में प्रचलित है। भगवान कृष्ण ने स्वयं गिरिराज की पूजा की
थी और गिरिराज जी इसीलिए ब्रजवासियों के ही नहीं, पूरे देश के इष्टदेव के
इष्टदेव हैं। देश भर के भक्त प्रतिवर्ष दूर- दूर से आकर गिरिराज परिक्रमा
करते हैं। ब्रज में गिरिराज को विष्णु रुप, बरसाने के वृहत्सानु पर्वत को
ब्रह्मा रुप तथा नंदगाँव के पर्वत को शिव रुप माना जाता है और इनकी बड़ी
श्रद्धा से परिक्रमा की जाती है। ब्रज के वन- उपवनों की परिक्रमा तो "ब्रज- यात्रा' या "वन- यात्रा' के रुप में प्रतिवर्ष देश भर से पधारे हजारों
यात्री सामूहिक रुप से करते हैं। गोपाष्टमी और गो पूजन, नाग- पंचमी पर नाग
पूजन तथा वृहस्पतिवार को केला तथा वट सावित्री पर्व पर बड़ की पूजा की जाती
हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर ब्रज में यमुना पूजन बड़ी धूमधाम से किया जाता
है।
ब्रज के संबंध में कहावत प्रचलित है कि "सात बार नौ त्योहार' उत्सव,
उल्लास तथा अभावों में भी जीवन को पूरी मस्ती से जीना, हंसी- ठिठोली,
मसखरीव चुहलपूर्ण जीवन ब्रजवासियों की विशेषता है। नृत्य, गायन, आमोद-
प्रमोद से परिपूर्ण जीवन जीने के ब्रजवासी आदी रहे हैं। होली को ही लें, तो
यहाँ बसंत पंचमी से प्रारंभ होकर होली का उल्लास आधे चैत तक चलताहै। रास,
रसिया, भजन, आल्हा, ढोला, रांझा, निहालदे, ख्याल, जिकड़ी के भजन यहाँ के
ग्रामीण जीवन में भरे हैं, तो नागरिक जीवन में ध्रुवपद- धमाल, ख्याल, ठुमरी
आदि तथा मंदिरों में समाज- संगीत की अनेक परंपराएँ यहाँ पनपी हैं, जो जीवन
को निरंतर कलात्मकता,
सरसता और जीवंतता से ओतप्रोत बनाए रहती हैं। स्वांग, भगत व रास ब्रज के ऐसे रंगमंच हैं, जो पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं।