-पुस्तक ब्रह्मवैवर्त पुराण
-लेखक श्रीवेदव्यास
-प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 800
-मूल्य 250/-
ब्रह्मवैवर्त पुराण वेदमार्ग का दसवाँ पुराण है। अठारह पुराणों में प्राचीनतम पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण को माना गया है। इस पुराण में जीव की उत्पत्ति के कारण और ब्रह्माजी द्वारा समस्त भू-मंडल, जल-मंडल और वायु-मंडल में विचरण करने वाले जीवों के जन्म और उनके पालन पोषण का सविस्तार वर्णन किया गया है।
इस पुराण में चार खण्ड हैं।
ब्रह्मखण्ड,
प्रकृतिखण्ड,
श्रीकृष्णजन्मखण्ड
गणेशखण्ड
इन चारों में दो सौ अठारह अध्याय हैं। इन चारों खण्डों से युक्त यह पुराण अठारह हजार श्लोकों का बताया गया है।यह पुराण कहता है कि इस विश्व में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अपने-अपने विष्णु, ब्रह्मा और महेश हैं। इन सभी
ब्रह्माण्डों से भी ऊपर स्थित गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण निवास करते हैं।
'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की
रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध
परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।
कहने का तात्पर्य है प्रकृति के भिन्न-भिन्न परिणामों का जहां प्रतिपादन हो
वही पुराण ब्रह्मवैवर्त कहलाता है।
'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में श्रीकृष्ण लीला का वर्णन 'भागवत पुराण ' से काफी भिन्न है। 'भागवत पुराण' का वर्णन साहित्यिक और सात्विक है जबकि 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का वर्णन श्रृंगार रस से परिपूर्ण है। इस पुराण में सृष्टि का मूल श्रीकृष्ण को बताया गया है।
इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन, श्रीराधा की गोलोक-लीला
तथा अवतार-लीलाका सुन्दर विवेचन, विभिन्न देवताओं की महिमा एवं एकरूपता और
उनकी साधना-उपासनाका सुन्दर निरूपण किया गया है। अनेक भक्तिपरक आख्यानों
एवं स्तोत्रोंका भी इसमें अद्भुत संग्रह है।