-पुस्तक अग्निपुराण
-लेखक भगवान वेदव्यास जी
-प्रकाशक गीताप्रस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 846
-मूल्य 260/-
पुराण साहित्य में अग्निपुराण अपनी व्यापक दृष्टि तथा विशाल ज्ञान भंडार के कारण विशिष्ट स्थान रखता है। साधारण रीति से पुराण को 'पंचलक्षण' कहते हैं, क्योंकि इसमें सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (संहार), वंश, मन्वंतर तथा वंशानुचरित का वर्णन अवश्यमेव रहता है, चाहे परिमाण में थोड़ा न्यून ही क्यों न हो। परंतु अग्निपुराण इसका अपवाद है। प्राचीन भारत की परा और अपरा विद्याओं का तथा नाना भोतिकशास्त्रों का इतना व्यवस्थित वर्णन यहाँ किया गया है कि इसे वर्तमान दृष्टि से हम एक विशाल विश्वकोश कह सकते हैं।
आधुनिक उपलब्ध अग्निपुराण के कई संस्करणों में 11475 श्लोक है एवं 383 अध्याय हैं,
अग्नि पुराण के अनुसार इसमें सभी विधाओं का वर्णन है। यह अग्निदेव के स्वयं
के श्रीमुख से वर्णित है, इसलिए यह प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण पुराण है। यह
पुराण अग्निदेव ने महर्षि वशिष्ठ को सुनाया था। यह पुराण दो भागों में हैं
पहले भाग में पुराण ब्रह्म विद्या का सार है। इसके आरंभ में भगवान विष्णु
के दशावतारों का वर्णन है। इस पुराण में 11 रुद्रों, 8 वसुओं तथा 12 आदित्यों के बारे में बताया गया है। विष्णु तथा शिव की पूजा के विधान,
सूर्य की पूजा का विधान, नृसिंह मंत्र आदि की जानकारी भी इस पुराण में दी
गयी है। इसके अतिरिक्त प्रासाद एवं देवालय निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा आदि
की विधियाँ भी बतायी गयी है।
इसमें भूगोल, ज्योतिः शास्त्र तथा वैद्यक के विवरण के बाद राजनीति का भी विस्तृत वर्णन किया गया है जिसमें अभिषेक, साहाय्य, संपत्ति, सेवक, दुर्ग, राजधर्म आदि आवश्यक विषय निर्णीत है। धनुर्वेद का भी बड़ा ही ज्ञानवर्धक विवरण दिया गया है जिसमें प्राचीन अस्त्र-शस्त्रों तथा सैनिक शिक्षा पद्धति का विवेचन विशेष उपादेय तथा प्रामाणिक है। इस पुराण के अंतिम भाग में आयुर्वेद का विशिष्ट वर्णन अनेक अध्यायों में मिलता है, इसके अतिरिक्त छंदःशास्त्र, अलंकार शास्त्र, व्याकरण तथा कोश विषयक विवरण भी दिये गए है।
परन्तु आधुनिक समालोचकों के अनुसार अग्निपुराण बहुत बाद की रचना है
तथा इसका वर्तमान रूप भरत, भामह, दण्डी, आनन्दवर्धन, भोज के भी बाद का है।