-पुस्तक साधन - सुधा - निधि
-लेखक स्वामी श्रीरामसुखदासजी
-प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 800
-मूल्य 180/-
स्वामी रामसुखदास का जन्म राजस्थान के नागौर जिले के ग्राम माडपुरा में रूघाराम पिडवा के यहाँ सन् 1904 में हुआ। उनकी माता कुनणाँबाई के सहोदर भ्राता सदारामजी रामस्नेही सम्प्रदाय के साधु थे।
४ वर्ष की आयु में ही माताजी ने राम सुखदास को इनके चरणो में भेट कर दिया। किसी समय स्वामी कन्हीराम गाँवचाडी ने आजीवन शिष्य बनाने के लिए आपको मांग लिया। शिक्षा दीक्षा के पश्चात वे सम्प्रदाय का मोह छोडकर विरक्त (संन्यासी) हो गये और उन्होंने गीता के मर्म को साक्षात् किया और अपने प्रवचनो से निरन्तर अमृत वर्षा करने लगे।
गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा संचालित साहित्य का आप वर्षो तक संचालन करते रहे। आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर, द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर, अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर, लोग भगवान्में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर, गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि॰सं॰२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्त में (3 बजकर 40 मिनिट) भगवद्-धाम पधारे।
स्वामी रामसुखदासजी के कुछ प्रवचनो-
.मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।
मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्त्व देता हूँ ।
रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।
जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।
मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।
जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।
आपने श्री मद् भगवद् गीता पर एक अद्वितीय हिन्दी टीका लिखी है। जिसका कोई अगर मन लगाकर ठीक तरह से अध्ययन करे, तो परमात्मतत्त्व का बोध हो सकता है। गीताजी का रहस्य समझ में आ सकता है। घर परिवार और संसार में रहने की विद्या आ सकती है। सब दुख,चिन्ता, भय आदि सदा- सदा के लिये मिट सकते हैं और आनन्द हो सकता है।
इसी प्रकार उनकी "गीता-दर्पण", "गीता-माधुर्य", "साधन-सुधा-सिन्धु," "गृहस्थ में कैसे रहें?" आदि करीब सत्तर अस्सी से भी अधिक पुस्तकें छपी हुई है और उनके सत्संग, प्रवचनों की की हुई लगातार सोलह वर्षों (1990 से 2005 तक ) की ओडियो रिकोर्डिंग है तथा उससे पहले के सत्संग प्रवचनों की भी काफी रिकोर्डिंग है।
"साधन-सुधा-सिन्धु," मे स्वामी जी के प्रवचनो का सग्रह हैं।