-पुस्तक भक्त-चरिताङ्क
-लेखक श्री वेदव्यासजी
-प्रकाशक गीताप्रस गोरखपुर
-पृष्ठसंख्या 928
-मूल्य 250/-
भक्ति क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है। प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दाम्पत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुनः सखाभाव को प्राप्त कर लेता है
इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन
भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य
बंधु है। आचार्य वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा पुष्ट नाम के जो चार
भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें पुष्टि का वर्णन करते हुए वे
लिखते हैं : कृष्णधीनातु मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह
स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।
भगवान के भक्तों का स्मरण और उनके नमो का ऊंचा मत्रा भी अंतकरण को पवित्र कर देता है'
हनुमान परमेश्वर की भक्ति की सबसे लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य रामायन में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में प्रधान हैं। श्रीराम के परम भक्त हैं।
महान तपस्वी भक्त देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान
का मन कहा गया है। देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है।
समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण
ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम् च नारद:।
देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में
भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र
(जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के
द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के
देवता थे और इस प्रकार, उन्हें ऋषिराज के नाम से भी जाना जाता था।
हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार ध्रुव भगवान विष्णू के महान तपस्वी भक्त थे। वे उत्तानपाद (स्वयंभू मनु के पुत्र) के पुत्र थे। ध्रुव ने बचपन में ही घरबार छोड़कर तपस्या करने की ठानी
भक्ति तर्क
पर नहीं, श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित है। पुरुष ज्ञान से भी अधिक
श्रद्धामय है। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा बन जाता है, इससे भी अधिक
सत्य इस कथन में है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुकूल और
अनुपात में उसका निर्माण होता है।
प्रेरक भाव है, विचार नहीं। जो भक्ति
भूमि से हटाकर द्यावा में प्रवेश करा दे, मिट्टी से ज्योति बना दे, उसकी
उपलब्धि हम सबके लिए निस्संदेह महीयसी है। घी के ज्ञान और कर्म दोनों अर्थ
हैं। हृदय श्रद्धा या भाव का प्रतीक है। भाव का प्रभाव, वैसे भी, सर्वप्रथम
हृदय के स्पंदनों में ही लक्षित होता है।
आराधना करने वाले को भक्त कहा जाता है। और भक्तों के समूह को भक्तों की संज्ञा दी जाती है।
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