22 Aug 2021

भक्तिसुधा

 



-पुस्तक         भक्तिसुधा

-लेखक         स्वामी करपात्रीजी महाराज

-प्रकाशक      गीताप्रेस गोरखपुर

-पृष्ठसंख्या      768

-मूल्य             200/-

 

 

भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति।  नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है। इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है। 


धर्मसम्राट स्वामी करपात्री (1907 - 1982) भारत के एक सन्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे। उनका मूल नाम हरि नारायण ओझा था। वे दशनामी परम्परा के संन्यासी थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम 'हरिहरानन्द सरस्वती' था किन्तु वे 'करपात्री' नाम से ही प्रसिद्ध थे क्योंकि वे अपने अंजुलि का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे (कर = हाथ , पात्र = बर्तन, करपात्री = हाथ ही बर्तन हैं जिसके) । उन्होने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद् नामक राजनैतिक दल भी बनाया था। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें 'धर्मसम्राट' की उपाधि प्रदान की गई

इस पुस्तक में श्री स्वामी करपात्री जी महाराज ने सनातन-धर्म के प्रधान अंग देवोपासना के रहस्यों का विशद विवेचन किया है। भक्तिसुधा चार खंडों में विभक्त है - 

1 श्री कृष्णलीला दर्शन

2 देवोपासना तत्त्व

3 भक्ति तत्त्व 

4 ज्ञान तत्त्व


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